Swapna Rahasya(स्वप्न रहस्य ) दुःस्वप्न से छुटकारा दिलाता है शिव उपासना 117 views0 Share शिव का नीलकंठी रूप अत्यन्त कल्याणकारी है तो नटराज रूप प्रलय का प्रतीक होते हुए भी जीवनदायक है, क्योंकि इसी नटराज स्वरूप के माध्यम से उन्होंने एक भील कन्या को वरदान दिया था कि जो व्यक्ति तुम्हारे नाम का स्मरण करके रात्रि में विश्राम करेगा उसे गहरी नींद आएगी और कोई भी दुःस्वप्न उसके हृदय को कमजोर नहीं करेगा। इसी नटराज स्वरूप के माध्यम से उन्हो करके रात्रि में विश्राम करेगा उसे ग प्रेमशीला गुप्ता शिव देवाधिदेव हैं और अनादि-अनंत परब्रह्म भी हैं। शिवरात्रि का पर्व तो इनके गार्हस्थ्य जीवन के आदर्श का प्रतीक उत्सव है जिसमें उपवास का महत्व सबसे अधिक है। भारतीय दाम्पत्य परम्परा में शिव से बढ़कर कोई दूसरा उत्तम पति नहीं है जो अपनी पत्नी के सम्मुख नतमस्तक होकर कह सके कि- ‘हे पार्वती, तुम्हारे पत-तपस्या ने हमें प्रेम से इतना वशीभूत कर दिया है कि मैं दास बन गया हूं। तुम जो आदेश करोगी मैं वही करूंगा।’ यूं भी शिव वस्तुतः परित्राण के ही देवता हैं। ऋग्वेद से अब तक चला आ रहा इनका परित्राण पुरुषार्थ तो सदैव ही अजस्त्र रहा है। शिव का यह नीलकंठी रूप अत्यन्त कल्याणकारी है तो नटराज रूप प्रलय का प्रतीक होते हुए भी जीवनदायक है, क्योंकि इसी नटराज स्वरूप के माध्यम से इन्होंने एक भील कन्या को वरदान दिया था कि जो व्यक्ति तुम्हारे नाम का स्मरण करके रात्रि में विश्राम करेगा उसे गहरी नींद आएगी । इस भील कन्या का नाम था ‘कर्कटी’। कर्कटी का एक सहोदर भाई भी था जिसका नाम कर्कटं था। दोनों भाई -बहन ऋष्यमूक नामक पर्वत के निचले हिस्से में रहते थे। ऋष्यमूक पर्वत के ऊपरी भाग में तो ऋषि मतंग का आश्रम अवस्थित था जहां पर शिवालय मौजूद था। ऋषि मतंग भी शिव के भक्त थे। इन्हें तो शिवमहिमस्त्रोत के तत्व का ऐसा गूढ़ ज्ञान प्राप्त था कि अपने बलबूते पर कुछ भी इष्ट-अनिष्ट कर सकते थे। ऋषि मतंग के गूढ़ ज्ञान का लोहा तो बड़े-बड़े राजा- महाराजा तक मानते थे और राक्षस समूह भी भयभीत होकर दूर ही रहते थे। त्रेता युग में वानर सुग्रीव अपने भाई बाली के डर से मतंग ऋषि के आश्रम में ही चला आया था और सुरक्षित बच गया था। सुग्रीव का बड़ा भाई पंपापुर नामक राज्य का राजा था और सौ हाथियों के समान ताकत रखता था। मगर ऋषि मतंग ने अपने तपोबल से समूचे पर्वत को बाली की पहुंच से निषेध कर रखा था। ऋष्यमूक पर्वत पर स्थित शिवालय की मनोहरता सबसे निराली थी। यहां पर जब सुबह-शाम शंख एवं घंटा बजता था तब दूर-दूर तक आवाज फैल जाती थी और लोग जहां के जहां रुक कर नतमस्तक हो जाते थे। एक दिन इस शंख की आवाज कर्कटी ने सुन ली और मंत्रमुग्ध सी होती हुई शिवालय के द्वार तक पहुंच गयी। मतंग ऋषि शिव की पूजा में मगन थे। कर्कटी खड़ी-खड़ी इनकी पूजा-अर्चना की विधि को देखती रही फिर जब मतंग ऋषि का ध्यान टूटा तब हाथ जोड़कर अभिवादन करने लगी। कर्कटी यद्यपि भील जाति की थी किंतु बेहद शिष्ट तथा सुन्दर थी। इस अजनबी लड़की को देखकर ऋषि महोदय पूछ बैठे -‘तुम कौन हो पुत्री ?’मैं भील कन्या हूं देव, मैं आपके पर्वत के निचले हिस्से में अपने भाई कर्कट के साथ रहती हूं। यह सुनकर मतंग ऋषि वात्सल्य-भाव से मुस्कुरा उठे और शिव पर अर्पित नैवेद्य देकर विदा किया। इसके बाद तो कर्कटी प्रतिदिन शिवालय में आने लगी और अपने भाई कर्कट को भी साथ में लाती थी। समय बीता और कर्कटी की उम्र में तरुणाई आ गयी। उसका रूप रंग स्वर्ण-चम्पा की भांति खिल उठा और शरीर में कच्चे बॉस के समान लचक आ गयी । इतरायी सी वह वन-प्रांतों में घूमती रहती थी किन्तु एक दिन इस अनुपम कन्या के ऊपर एक राक्षस की कुदृष्टि पड़ गयी। इस राक्षस का नाम ‘स्वप्नासुर’ था। स्वप्नासुर दैत्य की आदत थी कि वह जिस किसी से नाराज हो जाता था उसे दुःस्वप्न दिखा कर इतना आतंकित कर देता था कि हृदयगति रूक जाती थी। कर्कटी के अद्वितीय रूप-सौंदर्य को देखकर स्वप्नासुर रीझ गया और वैवाहिक प्रस्ताव रख डाला जिससे कर्कटी तिलमिला उठी। उसने स्वप्नासुर दैत्य के विवाह प्रस्ताव को नकार दिया और अपने भाई कर्कट के साथ मतंग ऋषि की कुटिया में आ गयी। इससे स्वप्नासुर क्रोधित हो उठा और कर्कटी के भाई कर्कट को बुरे-बुरे डरावने सपने दिखा कर मार डाला। भाई की मृत्यु से कर्कटी बेहद आहत हुई मगर इस घटना के बावजूद उसने स्वप्नासुर के वैवाहिक प्रस्ताव को नहीं माना। अब तो स्वप्नासुर के क्रोध की सीमा न रही और उसने कर्कटी को भी दुःस्वप्न दिखलाना शुरू कर दिया। आतंक भरे सपने देख-देख कर कर्कटी घबड़ा गयी और उसने नींद लेना ही छोड़ दिया। कर्कटी ने अपना दुखड़ा ऋषि मतंग को बताया तो उन्होंने निदान बताते हुए कहा- ‘पुत्री, तुम यहां शिवालय में बैठकर शिव की आराधना करो, जरूर कोई शुभ परिणाम ही परिलक्षित होगा।’ कर्कटी ने ऋषि महोदय की बात को शिरोधार्य किया और शिव की आराधना में जुटती हुई ऊँ नमः शिवाय का जाप करने लगी। इससे शिव खुश हो गये और प्रत्यक्ष होकर कर्कटी को दर्शन देते हुए उसके दुखड़े को सुना फिर स्वप्नासुर दैत्य के प्रति उनका क्रोध जाग उठा। शिव की मुद्रा एकदम प्रलयंकर हो उठी और मुख से महाभयानक संहारक ध्वनि निकलने लगी। इन्होंने ताण्डव नृत्य शुरुकर किया और अपने पैरों से दबाकर स्वप्नासुर को मार डाला। इससे कर्कटी शोक मुक्त हो गयी । शिव ने उसे एक अमोध अलोकिक वरदान दिया- ‘पुत्री, आज से तुम हिमालय पर्वत के निचले भाग की रानी रहोगी और जो कोई भी तुम्हारे नाम का स्मरण करके सोयेगा उसे गहरी नींद आयेगी।’शिव का यह वरदान आज भी सर्वसुलभ है क्योंकि जिस किसी व्यक्ति को नींद न आए वह उक्त प्रक्रिया को अपना कर सोये फिर महसूस करे कि कितनी गहरी नींद आती है। Stay Connected What is your reaction? 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