Shri Durga Saptashati - Chandi Pathaमाँ दुर्गा पुजा Durga Saptashati Dwitiya Adhyay~श्रीदुर्गासप्तशती – द्वितीयोऽध्यायः 230 views0 Share ॥श्रीदुर्गासप्तशती – द्वितीयोऽध्यायः॥ ( देवताओं के तेज से देवी का प्रादुर्भाव और महिषासुर की सेना का वध ) ॥विनियोगः॥ ॐ मध्यमचरित्रस्य विष्णुर्ऋषिः, महालक्ष्मीर्देवता, उष्णिक् छन्दः,शाकम्भरी शक्तिः, दुर्गा बीजम्, वायुस्तत्त्वम्, यजुर्वेदः स्वरूपम्,श्रीमहालक्ष्मीप्रीत्यर्थं मध्यमचरित्रजपे विनियोगः। ॥ध्यानम्॥ ॐ अक्षस्रक्परशुं गदेषुकुलिशं पद्मं धनुष्कुण्डिकांदण्डं शक्तिमसिं च चर्म जलजं घण्टां सुराभाजनम्।शूलं पाशसुदर्शने च दधतीं हस्तैः प्रसन्नाननांसेवे सैरिभमर्दिनीमिह महालक्ष्मीं सरोजस्थिताम्॥ “ॐ ह्रीं” ऋषिरुवाच॥१॥देवासुरमभूद्युद्धं पूर्णमब्दशतं पुरा।महिषेऽसुराणामधिपे देवानां च पुरन्दरे॥२॥तत्रासुरैर्महावीर्यैर्देवसैन्यं पराजितम्।जित्वा च सकलान् देवानिन्द्रोऽभून्महिषासुरः॥३॥ततः पराजिता देवाः पद्मयोनिं प्रजापतिम्।पुरस्कृत्य गतास्तत्र यत्रेशगरुडध्वजौ॥४॥यथावृत्तं तयोस्तद्वन्महिषासुरचेष्टितम्।त्रिदशाः कथयामासुर्देवाभिभवविस्तरम्॥५॥सूर्येन्द्राग्न्यनिलेन्दूनां यमस्य वरुणस्य च।अन्येषां चाधिकारान् स स्वयमेवाधितिष्ठति॥६॥स्वर्गान्निराकृताः सर्वे तेन देवगणा भुवि।विचरन्ति यथा मर्त्या महिषेण दुरात्मना॥७॥एतद्वः कथितं सर्वममरारिविचेष्टितम्।शरणं वः प्रपन्नाः स्मो वधस्तस्य विचिन्त्यताम्॥८॥इत्थं निशम्य देवानां वचांसि मधुसूदनः।चकार कोपं शम्भुश्च भ्रुकुटीकुटिलाननौ॥९॥ततोऽतिकोपपूर्णस्य चक्रिणो वदनात्ततः।निश्चक्राम महत्तेजो ब्रह्मणः शंकरस्य च॥१०॥अन्येषां चैव देवानां शक्रादीनां शरीरतः।निर्गतं सुमहत्तेजस्तच्चैक्यं समगच्छत॥११॥अतीव तेजसः कूटं ज्वलन्तमिव पर्वतम्।ददृशुस्ते सुरास्तत्र ज्वालाव्याप्तदिगन्तरम्॥१२॥अतुलं तत्र तत्तेजः सर्वदेवशरीरजम्।एकस्थं तदभून्नारी व्याप्तलोकत्रयं त्विषा॥१३॥यदभूच्छाम्भवं तेजस्तेनाजायत तन्मुखम्।याम्येन चाभवन् केशा बाहवो विष्णुतेजसा॥१४॥सौम्येन स्तनयोर्युग्मं मध्यं चैन्द्रेण चाभवत्।वारुणेन च जङ्घोरू नितम्बस्तेजसा भुवः॥१५॥ब्रह्मणस्तेजसा पादौ तदङ्गुल्योऽर्कतेजसा।वसूनां च कराङ्गुल्यः कौबेरेण च नासिका॥१६॥तस्यास्तु दन्ताः सम्भूताः प्राजापत्येन तेजसा।नयनत्रितयं जज्ञे तथा पावकतेजसा॥१७॥भ्रुवौ च संध्ययोस्तेजः श्रवणावनिलस्य च।अन्येषां चैव देवानां सम्भवस्तेजसां शिवा॥१८॥ततः समस्तदेवानां तेजोराशिसमुद्भवाम्।तां विलोक्य मुदं प्रापुरमरा महिषार्दिताः*॥१९॥शूलं शूलाद्विनिष्कृष्य ददौ तस्यै पिनाकधृक्।चक्रं च दत्तवान् कृष्णः समुत्पाद्य* स्वचक्रतः॥२०॥शङ्खं च वरुणः शक्तिं ददौ तस्यै हुताशनः।मारुतो दत्तवांश्चापं बाणपूर्णे तथेषुधी॥२१॥वज्रमिन्द्रः समुत्पाद्य* कुलिशादमराधिपः।ददौ तस्यै सहस्राक्षो घण्टामैरावताद् गजात्॥२२॥कालदण्डाद्यमो दण्डं पाशं चाम्बुपतिर्ददौ।प्रजापतिश्चाक्षमालां ददौ ब्रह्मा कमण्डलुम्॥२३॥समस्तरोमकूपेषु निजरश्मीन् दिवाकरः।कालश्च दत्तवान् खड्गं तस्याश्चर्म* च निर्मलम्॥२४॥क्षीरोदश्चामलं हारमजरे च तथाम्बरे।चूडामणिं तथा दिव्यं कुण्डले कटकानि च॥२५॥अर्धचन्द्रं तथा शुभ्रं केयूरान् सर्वबाहुषु।नूपुरौ विमलौ तद्वद् ग्रैवेयकमनुत्तमम्॥२६॥अङ्गुलीयकरत्नानि समस्तास्वङ्गुलीषु च।विश्वकर्मा ददौ तस्यै परशुं चातिनिर्मलम्॥२७॥अस्त्राण्यनेकरूपाणि तथाभेद्यं च दंशनम्।अम्लानपङ्कजां मालां शिरस्युरसि चापराम्॥२८॥अददज्जलधिस्तस्यै पङ्कजं चातिशोभनम्।हिमवान् वाहनं सिंहं रत्नानि विविधानि च॥२९॥ददावशून्यं सुरया पानपात्रं धनाधिपः।शेषश्च सर्वनागेशो महामणिविभूषितम्॥३०॥नागहारं ददौ तस्यै धत्ते यः पृथिवीमिमाम्॥अन्यैरपि सुरैर्देवी भूषणैरायुधैस्तथा॥३१॥सम्मानिता ननादोच्चैः साट्टहासं मुहुर्मुहुः।तस्या नादेन घोरेण कृत्स्नमापूरितं नभः॥३२॥अमायतातिमहता प्रतिशब्दो महानभूत्।चुक्षुभुः सकला लोकाः समुद्राश्च चकम्पिरे॥३३॥चचाल वसुधा चेलुः सकलाश्च महीधराः।जयेति देवाश्च मुदा तामूचुः सिंहवाहिनीम्*॥३४॥तुष्टुवुर्मुनयश्चैनां भक्तिनम्रात्ममूर्तयः।दृष्ट्वा समस्तं संक्षुब्धं त्रैलोक्यममरारयः॥३५॥सन्नद्धाखिलसैन्यास्ते समुत्तस्थुरुदायुधाः।आः किमेतदिति क्रोधादाभाष्य महिषासुरः॥३६॥अभ्यधावत तं शब्दमशेषैरसुरैर्वृतः।स ददर्श ततो देवीं व्याप्तलोकत्रयां त्विषा॥३७॥पादाक्रान्त्या नतभुवं किरीटोल्लिखिताम्बराम्।क्षोभिताशेषपातालां धनुर्ज्यानिःस्वनेन ताम्॥३८॥दिशो भुजसहस्रेण समन्ताद् व्याप्य संस्थिताम्।ततः प्रववृते युद्धं तया देव्या सुरद्विषाम्॥३९॥शस्त्रास्त्रैर्बहुधा मुक्तैरादीपितदिगन्तरम्।महिषासुरसेनानीश्चिक्षुराख्यो महासुरः॥४०॥युयुधे चामरश्चान्यैश्चतुरङ्गबलान्वितः।रथानामयुतैः षड्भिरुदग्राख्यो महासुरः॥४१॥अयुध्यतायुतानां च सहस्रेण महाहनुः।पञ्चाशद्भिश्च नियुतैरसिलोमा महासुरः॥४२॥अयुतानां शतैः षड्भिर्बाष्कलो युयुधे रणे।गजवाजिसहस्रौघैरनेकैः* परिवारितः*॥४३॥वृतो रथानां कोट्या च युद्धे तस्मिन्नयुध्यत।बिडालाख्योऽयुतानां च पञ्चाशद्भिरथायुतैः॥४४॥युयुधे संयुगे तत्र रथानां परिवारितः*।अन्ये च तत्रायुतशो रथनागहयैर्वृताः॥४५॥युयुधुः संयुगे देव्या सह तत्र महासुराःकोटिकोटिसहस्रैस्तु रथानां दन्तिनां तथा॥४६॥हयानां च वृतो युद्धे तत्राभून्महिषासुरः।तोमरैर्भिन्दिपालैश्च शक्तिभिर्मुसलैस्तथा॥४७॥युयुधुः संयुगे देव्या खड्गैः परशुपट्टिशैः।केचिच्च चिक्षिपुः शक्तीः केचित्पाशांस्तथापरे॥४८॥देवीं खड्गप्रहारैस्तु ते तां हन्तुं प्रचक्रमुः।सापि देवी ततस्तानि शस्त्राण्यस्त्राणि चण्डिका॥४९॥लीलयैव प्रचिच्छेद निजशस्त्रास्त्रवर्षिणी।अनायस्तानना देवी स्तूयमाना सुरर्षिभिः॥५०॥मुमोचासुरदेहेषु शस्त्राण्यस्त्राणि चेश्वरी।सोऽपि क्रुद्धो धुतसटो देव्या वाहनकेशरी॥५१॥चचारासुरसैन्येषु वनेष्विव हुताशनः।निःश्वासान् मुमुचे यांश्च युध्यमाना रणेऽम्बिका॥५२॥त एव सद्यः सम्भूता गणाः शतसहस्रशः।युयुधुस्ते परशुभिर्भिन्दिपालासिपट्टिशैः॥५३॥नाशयन्तोऽसुरगणान् देवीशक्त्युपबृंहिताः।अवादयन्त पटहान् गणाः शङ्खांस्तथापरे॥५४॥मृदङ्गांश्च तथैवान्ये तस्मिन् युद्धमहोत्सवे।ततो देवी त्रिशूलेन गदया शक्तिवृष्टिभिः*॥५५॥खड्गादिभिश्च शतशो निजघान महासुरान्।पातयामास चैवान्यान् घण्टास्वनविमोहितान्॥५६॥असुरान् भुवि पाशेन बद्ध्वा चान्यानकर्षयत्।केचिद् द्विधा कृतास्तीक्ष्णैः खड्गपातैस्तथापरे॥५७॥विपोथिता निपातेन गदया भुवि शेरते।वेमुश्च केचिद्रुधिरं मुसलेन भृशं हताः॥५८॥केचिन्निपतिता भूमौ भिन्नाः शूलेन वक्षसि।निरन्तराः शरौघेण कृताः केचिद्रणाजिरे॥५९॥श्ये*नानुकारिणः प्राणान् मुमुचुस्त्रिदशार्दनाः।केषांचिद् बाहवश्छिन्नाश्छिन्नग्रीवास्तथापरे॥६०॥शिरांसि पेतुरन्येषामन्ये मध्ये विदारिताः।विच्छिन्नजङ्घास्त्वपरे पेतुरुर्व्यां महासुराः॥६१॥एकबाह्वक्षिचरणाः केचिद्देव्या द्विधा कृताः।छिन्नेऽपि चान्ये शिरसि पतिताः पुनरुत्थिताः॥६२॥कबन्धा युयुधुर्देव्या गृहीतपरमायुधाः।ननृतुश्चापरे तत्र युद्धे तूर्यलयाश्रिताः॥६३॥कबन्धाश्छिन्नशिरसः खड्गशक्त्यृष्टिपाणयः।तिष्ठ तिष्ठेति भाषन्तो देवीमन्ये महासुराः*॥६४॥पातितै रथनागाश्वैरसुरैश्च वसुन्धरा।अगम्या साभवत्तत्र यत्राभूत्स महारणः॥६५॥शोणितौघा महानद्यः सद्यस्तत्र प्रसुस्रुवुः।मध्ये चासुरसैन्यस्य वारणासुरवाजिनाम्॥६६॥क्षणेन तन्महासैन्यमसुराणां तथाम्बिका।निन्ये क्षयं यथा वह्निस्तृणदारुमहाचयम्॥६७॥स च सिंहो महानादमुत्सृजन्धुतकेसरः।शरीरेभ्योऽमरारीणामसूनिव विचिन्वति॥६८॥देव्या गणैश्च तैस्तत्र कृतं युद्धं महासुरैः।यथैषां* तुतुषुर्देवाः* पुष्पवृष्टिमुचो दिवि॥ॐ॥६९॥ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्येमहिषासुरसैन्यवधो नाम द्वितीयोऽध्यायः॥२॥उवाच १, श्लोकाः ६८, एवम् ६९,एवमादितः॥१७३॥ दूसरा अध्याय – Chapter Second – Durga Saptashati ( देवताओं के तेज से देवी का प्रादुर्भाव और महिषासुर की सेना का वध ) महर्षि मेधा बोले-प्राचीन काल में देवताओं और असुरों में पूरे सौ वर्षों तक घोर युद्ध हुआ था और देवराज इन्द्र देवताओं के नायक थे। इस युद्ध में देवताओं की सेना परास्त हो गई थी और इस प्रकार सम्पूर्ण देवताओं को जीत महिषासुर इन्द्र बन बैठा था। युद्ध के पश्चात हारे हुए देवता प्रजापति श्रीब्रह्मा को साथ लेकर उस स्थान पर पहुँचे, जहाँ पर कि भगवान शंकर विराजमान थे। देवताओं ने अपनी हार का सारा वृत्तान्त भगवान श्रीविष्णु और शंकरजी से कह सुनाया। वह कहने लगे-हे प्रभु! महिषासुर सूर्य, चन्द्रमा, इन्द्र, अग्नि, वायु, यम, वरुण तथा अन्य देवताओ के सब अधिकार छीनकर सबका अधिष्ठाता स्वयं बन बैठा है। उसने समस्त देवताओं को स्वर्ग से निकाल दिया है। वह मनुष्यों की तरह पृथ्वी पर विचर रहे हैं। दैत्यों की सारी करतूत हमने आपको सुना दी है और आपकी शरण में इसलिए आए हैं कि आप उनके वध का कोई उपाय सोचें। देवताओं की बातें सुनकर भगवान श्रीविष्णु और शंकरजी को दैत्यों पर बड़ा गुस्सा आया। उनकी भौंहें तन गई और आँखें लाल हो गई। गुस्से में भरे हुए भगवान विष्णु के मुख से बड़ा भारी तेज निकला और उसी प्रकार का तेज भगवान शंकर, ब्रह्मा और इन्द्र आदि दूसरे देवताओं के मुख से प्रकट हुआ। फिर वह सारा तेज एक में मिल गया और तेज का पुंज वह ऎसे दिखता था जैसे कि जाज्वल्यमान पर्वत हो। देवताओं ने देखा कि उस पर्वत की ज्वाला चारों ओर फैली हुई थी और देवताओं के शरीर से प्रकट हुए तेज की किसी अन्य तेज से तुलना नहीं हो सकती थी। एक स्थान पर इकठ्ठा होने पर वह तेज एक देवी के रूप में परिवर्तित हो गया और अपने प्रकाश से तीनों लोकों में व्याप्त जान पड़ा। वह भगवान शंकर का तेज था, उससे देवी का मुख प्रकट हुआ। यमराज के तेज से उसके शिर के बाल बने, भगवान श्रीविष्णु के तेज से उसकी भुजाएँ बनीं, चन्द्रमा के तेज से दोनों स्तन और इन्द्र के तेज से जंघा तथा पिंडली बनी और पृथ्वी के तेज से नितम्ब भाग बना, ब्रह्मा के तेज से दोनों चरण और सूर्य के तेज से उनकी अँगुलियाँ पैदा हुईं। वसुओं के तेज से हाथों की अँगुलियाँ एवं कुबेर के तेज से नासिका बनी, प्रजापति के तेज से उसके दाँत और अग्नि के तेज से उसके नेत्र बने, सन्ध्या के तेज से उसकी भौंहें और वायु के तेज से उसके कान प्रकट हुए थे। इस प्रकार उस देवी का प्रादुर्भाव हुआ था। महिषासुर से पराजित देवता उस देवी को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए। भगवान शंकर ने अपने त्रिशूल में से एक त्रिशूल निकाल कर उस देवी को दिया और भगवान विष्णु ने अपने चक्र में से एक चक्र निकाल कर उस देवी को दिया, वरुण ने अपने चक्र में से एक चक्र निकाल कर उस देवी को दिया, वरुण ने देवी को शंख भेंट किया, अग्नि ने इसे शक्ति दी, वायु ने उसे धनुष और बाण दिए, सहस्त्र नेत्रों वाले श्रीदेवारज इन्द्र ने उसे अपने वज्र से उत्पन्न करके वज्र दिया और ऎरावत हाथी का एक घण्टा उतारकर देवी को भेंट किया, यमराज ने उसे कालदंंड में से एक दंड दिया, वरुण ने उसे पाश दिया। प्रजापति ने उस देवी को स्फटिक की माला दी और ब्रह्माजी ने उसे कमण्दलु दिया, सूर्य ने देवी कके समस्त रोमों में अपनी किरणों का तेज भर दिया, काल ने उसे चमकती हुई ढाल और तलवार दी और उज्वल हार और दिव्य वस्त्र उसे भेंट किये और इनके साथ ही उसने दिव्य चूड़ामणि दी, दो कुंडल, कंकण, उज्जवल अर्धचन्द्र, बाँहों के लिए बाजूबंद, चरणों के लिए नुपुर, गले के लिए सुन्दर हँसली और अँगुलियों के लिए रत्नों की बनी हुई अँगूठियाँ उसे दी, विश्वकर्मा ने उनको फरसा दिया और उसके साथ ही कई प्रकार के अस्त्र और अभेद्य कवच दिए और इसके अतिरिक्त उसने कभी न कुम्हलाने वाले सुन्दर कमलों की मालाएँ भेंट की, समुद्र ने सुन्दर कमल का फूल भेंट किया। हिमालय ने सवारी के लिए सिंह और तरह-तरह के रत्न देवी को भेंट किए, यक्षराज कुबेर ने मधु से भरा हुआ पात्र और शेषनाग ने उन्हें बहुमूल्य मणियों से विभूषित नागहार भेंट किया। इसी तरह दूसरे देवताओं ने भी उसे आभूषण और अस्त्र देकर उसका सम्मान किया। इसके पश्चात देवी ने उच्च स्वर से गर्जना की। उसके इस भयंकर नाद से आकाश गूँज उठा। देवी का वह उच्च स्वर से किया हुआ सिंहनाद समा न सका, अकाश उनके सामने छोटा प्रतीत होने लगा। उससे बड़े जोर की प्रतिध्वनि हुई, जिससे समस्त विश्व में हलचल मच गई और समुद्र काँप उठे, पृथ्वी डोलने लगी और सबके सब पर्वत हिलने लगे। देवताओं ने उस समय प्रसन्न हो सिंह वाहिनी जगत्मयी देवी से कहा-देवी! तुम्हारी जय हो। इसके साथ महर्षियों ने भक्ति भाव से विनम्र होकर उनकी स्तुति की। सम्पूर्ण त्रिलोकी को शोक मग्न देखकर दैत्यगण अपनी सेनाओं को साथ लेकर और हथियार आदि सजाकर उठ खड़े हुए, महिषासुर के क्रोध की कोई सीमा नहीं थी। उसने क्रोध में भरकर कहा-’यह सब क्या उत्पात है, फिर वह अपनी सेना के साथ उस ओर दौड़ा, जिस ओर से भयंकर नाद का शब्द सुनाई दिया था और आगे पहुँच कर उसने देवी को देखा, जो कि अपनी प्रभा से तीनों लोकों को प्रकाशित कर रही थी। उसके चरणों के भार से पृथ्वी दबी जा रही थी। माथे के मुकुट से आकाश में एक रेखा सी बन रही थी और उसके धनुष की टंकोर से सब लोग क्षुब्ध हो रहे थे, देवी अपनी सहस्त्रों भुजाओं को सम्पूर्ण दिशाओं में फैलाए खड़ी थी। इसके पश्चात उनका दैत्यों के साथ युद्ध छिड़ गया और कई प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सब की सब दिशाएँ उद्भाषित होने लगी। महिषासुर की सेना का सेनापति चिक्षुर नामक एक महान असुर था, वह आगे बढ़कर देवी के साथ युद्ध करने लगा और दूसरे दैत्यों की चतुरंगिणी सेना साथ लेकर चामर भी लड़ने लगा और साठ हजार महारथियों को साथ लेकर उदग्र नामक महादैत्य आकर युद्ध करने लगा और महाहनु नामक असुर एक करोड़ रथियों को लेकर, असिलोमा नामक असुर पाँच करोड़ सैनिकों को साथ लेकर युद्ध करने लगा, वाष्कल नामक असुर साठ लाख असुरों के साथ युद्ध में आ डटा, विडाल नामक असुर एक करोड़ रथियों सहित लड़ने को तैयार था, इन सबके अतिरिक्त और भी हजारों असुर हाथी और घौड़े साथ लेकर लड़ने लगे और इन सबके पश्चात महिषासुर करोड़ों रथों, हाथियों और घोड़ो सहित वहाँ आकर देवी के साथ लड़ने लगा। सभी असुर तोमर, भिन्दिपाल, शक्ति, मुसल, खंड्गों, फरसों, पट्टियों के साथ रणभूमि में देवी के साथ युद्ध करने लगे। कई शक्तियाँ फेंकने लगे और कोई अन्य शस्त्रादि, इसके पश्चात सबके सब दैत्य अपनी-ापनी तलवारें हाथों में लेकर देवी की ओर दौड़े और उसे मार डालने का उद्योग करने लगे। मगर देवी ने क्रोध में भरकर खेल ही खेल में उनके सब अस्त्रों शस्त्रों को काट दिया। इसके पश्चात ऋषियों और देवताओं ने देवी ककी स्तुति आरम्भ कर दी और वह प्रसन्न होकर असुरों के शरीरों पर अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करती रही। देवी का वाहन भी क्रोध में भरकर दैत्य सेना में इस प्रकार विचरने लगा जैसे कि वन में दावानल फैल रहा हो। युद्ध करती हुई देवी ने क्रोध में भर जितने श्वासों को छोड़ा, वह तुरन्त ही सैकड़ों हजारों गणों के रुप में परिवर्तित हो गए। फरसे, भिन्दिपाल, खड्ग तथा पट्टिश इत्यादि अस्त्रों के साथ दैत्यों से युद्ध करने लगे, देवी की शक्ति से बढ़े हुए वह गण दैत्यों का नाश करते हुए ढ़ोल, शंख व मृदंग आदि बजा रहे थे, तदनन्तर देवी ने त्रिशूल, गदा, शक्ति, खड्ग इत्यादि से सहस्त्रों असुरों को मार डाला, कितनों को घण्टे की भयंकर आवाज से ही यमलोक पहुँचा दिया, कितने ही असुरों को उसने पास में बाँधकर पृथ्वी पर धर घसीटा, कितनों को अपनी तलवार से टुकड़े-2 कर दिए और कितनों को गदा की चोट से धरती पर सुला दिया, कई दैत्य मूसल की मार से घायल होकर रक्त वमन करने लगे और कई शूल से छाती फट जाने के कारण पृथ्वी पर लेट गए और कितनों की बाण से कमर टूट गई। देवताओं को पीड़ा देने वाले दैत्य कट-कटकर मरने लगे। कितनों की बाँहें अलग हो गई, कितनों की ग्रीवाएँ कट गई, कितनों के सिर कट कर दूर भूमि पर लुढ़क गए, कितनों के शरीर बीच में से कट गए और कितनों की जंह्जाएँ कट गई और वह पृथ्वी पर गिर पड़े। कितने ही सिरों व पैरों के कटने पर भी भूमि पर से उठ खड़े हुए और शस्त्र हाथ में लेकर देवी से लड़ने लगे और कई दैत्यगण भूमि में बाजों की ध्वनि के साथ नाच रहे थे, कई असुर जिनके सिर कट चुके थे, बिना सिर के धड़ से ही हाथ में शस्त्र लिये हुए लड़ रहे थे, दैत्य रह-रहकर ठहरों! ठहरो! कहते हुए देवी को युद्ध के लिए ललकार रहे थे। जहाँ पर यह घोर संग्राम हुआ था वहाँ की भूमि रथ, हाथी, घोड़े और असुरों की लाशों से भर गई थी और असुर सेना के बीच में रक्तपात होने के कारण रुधिर की नदियाँ बह रही थी और इस तरह देवी ने असुरों की विशाल सेना को क्षणभर में इस तरह से नष्ट कर डाला, जैसे तृण काष्ठ के बड़े समूह को अग्नि नष्ट कर डालती है और देवी का सिंह भी गर्दन के बालों को हिलाता हुआ और बड़ा शब्द करता हुआ असुरों के शरीरों से मानो उनके प्राणों को ढूँढ़ रहा था, वहाँ देवी के गणों ने जब दैत्यों के साथ युद्ध किय तो देवताओं ने प्रसन्न होकर आकाश से उन पर पुष्प वर्षा की। इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्येमहिषासुरसैन्यवधो नाम द्वितीयोऽध्यायः॥२॥उवाच १, श्लोकाः ६८, एवम् ६९,एवमादितः॥१७३॥ Stay Connected What is your reaction? 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