Kavach Sangrah कवच संग्रह Shree Dattatreya Vajra Kavacham~श्रीदत्तात्रेय वज्र कवच 232 views0 Share || श्रीदत्तात्रेय वज्र कवच || श्रीगणेशाय नम: । श्रीदत्तात्रेय नम: ।। ऋषिय ऊचु: कथं संकल्पसिद्धि: स्याद्वेदव्यास कलौ युगे । धर्मार्थकाममोक्षाणां साधनं किमुदाहृतम् ।।1।। अर्थ ऋषियों ने पूछा – व्यासजी महाराज ! आप कृपाकर यह बतलाएँ कि कलियुग में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि किस प्रकार से होगी तथा क्लेश, मुक्ति और अन्य सत्संकल्प आदि कार्य कैसे सिद्ध होंगे. व्यास उवाच श्र्ण्वन्तु ऋषय: सर्वे शीघ्रं संकल्पसाधनम् । सकृदुच्चारमात्रेण भोगमोक्षप्रदायकम् ।।2।। अर्थ भगवान व्यास बोले – ऋषिगण ! आप सभी लोग सुनें. मैं विधिपूर्वक एक बार के पाठमात्र से भोग और मोक्ष आदि सभी को तत्काल सिद्ध करने वाला एक स्तोत्र बतलाता हूँ. गौरीश्रृंगे हिमवत: कल्पवृक्षोपशोभितम् । दीप्ते दिव्यमहारत्नहेममण्डपमध्यगम् ।। रत्नसिंहासनासीनं प्रसन्नं परमेश्वरम् । मंदस्मितमुखाम्भोजं शंकरं प्राह पार्वती ।। अर्थ हिमालय पर्वत के ऊपर एक गौरीशिखर नाम का दिव्य श्रृंग है, वह अनेक कल्पवृक्षों से सुशोभित रहता है, साथ ही महान रत्नों से सदा उद्भाषित होता रहता है. वहीं भगवान शिव और पार्वती के निवास के लिए एक सुवर्णमय मण्डप बना हुआ है. वहीं रत्नसिंहासन पर प्रसन्न मन से बैठे हुए मन्दस्मित मुखकमल भगवान शंकर से भगवती पार्वती ने आदरपूर्वक इस प्रकार पूछा. श्रीदेव्युवाच देवदेव महादेव लोकशंकर शंकर । मन्त्रजालानि सर्वाणि यन्त्रजालानि कृत्स्नश: ।।5।। तन्त्रजालान्यनेकानि मया त्वत्त: श्रुतानि वै । इदानीं द्रष्टुमिच्छामि विशेषेण महीतलम् ।।6।। अर्थ देवी पार्वती बोली – हे देवाधिदेव महादेव ! समस्त लोकों के कल्याण करने वाले भगवान शंकर ! आपसे मैंने अनेक प्रकार के मंत्र, यंत्र और तंत्र समुदायों को भली-भाँति सुना, अब मेरी इस भूमण्डल पर विचरण करने और उनके दृश्यों को देखने की विशेष इच्छा हो रही है. इत्युदीरितमाकर्ण्य पार्वत्या परमेश्वर: । करेणामृज्य संतोषात्पार्वतीं प्रत्यभाषत ।।7।। मयेदानीं त्वया सार्धं वृषमारुह्य गम्यते । इत्युक्त्वा वृषमारुह्य पार्वत्या सह शंकर: ।।8।। ययौ भूमण्डलं द्रष्टुं गौर्याश्चित्राणि दर्शयन् । अर्थ पार्वती जी के इस कथन को सुनकर भगवान शंकर ने उनके हाथ को प्रसन्नतापूर्वक स्पर्श कर इस प्रस्ताव का अनुमोदन करते हुए कहा कि ठीक है “मैं ऎसा ही करता हूँ”. मैं तुम्हारे साथ अपने वृषभ वाहन पर बैठकर भूमण्डल के दृश्यों के अवलोकन के लिए चल रहा हूँ. ऎसा कहकर भगवान शंखर पार्वती जी के साथ अपने वृषभ वाहन पर बैठकर उन्हें विभिन्न क्षेत्रों की शोभा दिखाते हुए भूमण्डल के दृश्यों को देखने निकल पड़े. क्वचिद् विन्ध्याचलप्रान्ते महारण्ये सुदुर्गमे ।।9।। तत्र व्याहन्तुमायान्तं भिल्लं परशुधारिणम् । वध्यमानं महाव्याघ्रं नखदंष्ट्राभिरावृतम् ।।10।। अतीव चित्रचारित्र्यं वज्रकायसमायुतम् । अप्रयत्नमनायासमखिन्नं सुखमास्थितम् ।।11।। अर्थ घूमते-घूमते वे लोग विन्ध्याचल पर्वत के अत्यन्त दुर्गम वन के एक भाग में पहुँचे. वहाँ उन्होंने फरसा लिए हुए एक भिल्ल को देखा, जो शिकार के लिए उस वन में घूम रहा था. उसका शरीर वज्र के समान कठोर था, वह विशाल नख एवं दाढ़ वाले एक बाघ को मारने में प्रवृत था. उसका चरित्र अत्यन्त विचित्र था और उसके शरीर में लेशमात्र भी श्रम एवं कान्ति के लक्षण नहीं दीख रहे थे तथा आनन्दपूर्वक निश्चिन्त खड़ा था. पलायन्तं मृगं पश्चाद् व्याघ्रो भीत्या पलायित: । एतदाश्चर्यमालोक्य पार्वती प्राह शंकरम् ।।12।। अर्थ बाघ मृग को देखकर डरकर भागने लगा और उसके पीछे-पीछे हिरन भी खदेड़ता हुआ जा रहा था. इस आश्चर्य को देखकर भगवती पार्वती ने भगवान शंकर से कहा. श्रीपार्वत्युवाच किमाश्चर्यं किमाश्चर्यमग्रे शम्भो निरीक्ष्यताम् । इत्युक्त: स तत: शम्भुर्दृष्ट्वा प्राह पुराणवित् ।।13।। अर्थ पार्वती जी बोली – “प्रभो ! यह सामने देखिए कितने बड़े आश्चर्य की बात है”. यह सुनकर सभी रहस्यों के मर्मज्ञ भगवान शंकर ने उधर देखा और फिर वे कहने लगे. श्रीशंकर उवाच गौरि वक्ष्यामि ते चित्रमवाड़्मनसगोचरम् । अदृष्टपूर्वमस्माभिर्नास्ति किंचिन्न कुत्रचित् ।।14।। मया सम्यक् समासेन वक्ष्यते श्रृणु पार्वति । अर्थ भगवान शंकर बोले – हे पार्वति ! इस विचित्र घटना का रहस्य जो मेरी समझ में आया है, वह मैं तुमसे बतला रहा हूँ. वैसे तो हम लोगों के लिए कहीं भी कोई वस्तु नयी नहीं है, सब कुछ देखा-सुना हुआ है. फिर भी मैं संक्षेप में बतला रहा हूँ, तुम ध्यान देकर सुनो. अयं दूरश्रवा नाम भिल्ल: परमधार्मिक: ।।15।। समित्कुशप्रसूनानि कन्दमूलफलादिकम् । प्रत्यहं विपिनं गत्वा समादाय प्रयासत: ।।16।। प्रिये पूर्वं मुनीन्द्रेभ्य: प्रयच्छति न वाण्छति । तेsपि तस्मिन्नपि दयां कुर्वते सर्वमौनिन: ।।17।। अर्थ यह दूरश्रवा नाम का अत्यन्त धर्मात्मा भिल्ल है. प्रिये ! यह प्रतिदिन प्रयत्नपूर्वक वन से समिधा, पुष्प, कुश, कन्द-मूल-फल आदि लेकर बिना कुछ पारिश्रमिक प्राप्त किये ही मुनियों के आश्रमों पर पहुँचा देता है. वह उनसे कुछ भी लेने की इच्छा भी नहीं करता, पर मुनि लोग उस पर बहुत कृपा करते हैं. दलादनो महायोगी वसन्नेव निजाश्रमे । कदाचिदस्मरत् सिद्धं दत्तात्रेयं दिगन्बरम् ।।18।। दत्तात्रेय: स्मर्तृगामी चेतिहासं परीक्षितुम् । तत्क्षणात्सोsपि योगीन्द्रो दत्तात्रेय: समुत्थित: । अर्थ यहीं दलादन (पत्तों के आहार पर जीवन धारण करने वाले पर्णाद) मुनि भी अपने आश्रम में निवास करते हैं. एक बार उन्होंने दत्तात्रेय मुनि की स्मर्तृगामिता (जो स्मरण करते ही पहुँच जाए उसे स्मर्तृगामी कहते हैं) की परीक्षा के लिए उनका स्मरण किया. फिर क्या था, महर्षि दत्तात्रेय तत्क्षण वहीं प्रकट हो गए. तं दृष्ट्वाssश्चर्यतोषाभ्यां दलादनमहामुनि: । सम्पूज्याग्रे निषीदन्तं दत्तात्रेयमुवाच तम् ।।20।। मयोपहूत: सम्प्राप्तो दत्तात्रेय महामुने । स्मर्तृगामी त्वमित्येतत् किंवदन्तीं परीक्षितुम् ।।21।। अर्थ उन्हें उपस्थित देखकर दलादन मुनि को महान आश्चर्य और अपार हर्ष हुआ. उन्होंने बड़ी आवभगतपूर्वक आसन पर बैठाकर उनका स्वागत-सत्कार एवं पूजन कर उनसे कहा – “महामुने दत्तात्रेय ! मैंने तो केवल आपकी स्मर्तृगामिता की प्रसिद्धि की दृष्टि से सामान्य रूप से ही आपको स्मरण किया था. मयाद्य संस्मृतोsसि त्वमपराधं क्षमस्व मे । दत्तात्रेयो मुनिं प्राह मम प्रकृतिरीदृशी ।।22।। अभक्त्या वा सुभक्त्या वा य: स्मरेन्मामनन्यधी: । तदानीं तमुपागत्य ददामि तद्भीप्सितम् ।।23।। दत्तात्रेयो मुनिं प्राह दलादनमुनीश्वरम् । यदिष्टं तद्वृणीष्व त्वं यत् प्राप्तोsहं त्वया स्मृत: ।।24।। अर्थ “आज जो मैंने आपको स्मरण किया और आप तत्काल यहाँ पधार गए, यह मैंने बड़ा भारी अपराध किया, आप मेरे इस अपराध को क्षमा करें”. इस पर दत्तात्रेय जी ने दलादन मुनि से कहा कि “मेरा तो यह स्वभाव ही है कि कोई मुझे भाव-कुभाव, भक्ति या अभक्ति से तल्लीनतापूर्वक स्मरण करे तो मैं तत्क्षण उसके पास पहुँच जाता हूँ और उसकी अभीष्ट वस्तु उसे प्रदान कर देता हूँ”. पुन: दत्तात्रेय जी ने कहा – “अत: जब आपने मुझे स्मरण किया है और मैं आ गया हूँ तो अब जो चाहो मुझसे माँग लो, मैं तुम्हें वह वस्तु प्रदान कर दूँगा. श्रीदत्तात्रेय उवाच ममास्ति वज्रकवचं गृहाणेत्यवदन्मुनिम् । तथेत्यंगीकृतवते दलादनमुनये मुनि: ।।26।। स्ववज्रकवचं प्राह ऋषिच्छन्द: पुर:सरम् । न्यासं ध्यानं फलं तत्र प्रयोजनमशेषत: ।।27।। अर्थ दत्तात्रेय जी बोले – तब तुम मेरा यह वज्रकवच ही ग्रहण कर लो. इस पर दलादन मुनि के “ऎसा ही हो” यह कहने पर उन्होंने अपने वज्रकवच का उपदेश कर दिया और साथ ही साथ इसके ऋषि, छन्द, न्यास, ध्यान, फल और प्रयोजन का भी उपदेश कर दिया. विनियोग इस प्रकार है – अस्य श्रीदत्तात्रेयवज्रकवचस्तोत्रमन्त्रस्य किरातरूपी महारुद्र ऋषि:, अनुष्टुप् छन्द:, श्रीदत्तात्रेयो देवता, द्रां बीजम्, आं शक्ति:, क्रौं कीलकम्, ऊँ आत्मने नम: । ऊँ द्रीं मनसे नम: । ऊँ आं द्रीं श्रीं सौ: ऊँ क्लां क्लूं क्लैं क्लौं क्ल: । श्रीदत्तात्रेयप्रसादसिद्द्ध्यर्थे जपे विनियोग: ।। करन्यास – ऊँ द्रां अंगुष्ठाभ्यां नम: । ऊँ द्रीं तर्जनीभ्यां नम: । ऊँ द्रूं मध्यमाभ्यां नम: । ऊँ द्रैं अनामिकाभ्यां नम: । ऊँ द्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नम: । ऊँ द्र: करतलकरपृष्ठाभ्यां नम: । हृदयादिन्यास भी इसी प्रकार से कर लेना चाहिए। “ऊँ भूर्भूव: स्वरोम्” ऎसा कहकर – चुटकी बजाते हुए भूत-प्रेतों से अपने स्थान तथा शरीर की रक्षा के लिए – दिग्बन्ध करना चाहिए. अथ ध्यानम् जगदंकुरकन्दाय सच्चिदानन्दमूर्तये । दत्तात्रेयाय योगीन्द्रचन्द्राय परमात्मने ।।1।। अर्थ उनका ध्यान इस प्रकार है – संसार – वृक्ष के मूलस्वरूप, सच्चिदानन्द की मूर्त्ति और योगीन्द्रों के लिये आह्लादकारी चन्द्रमा एवं परमात्मस्वरुप दत्तात्रेय मुनि को नमस्कार है. कदा योगी कदा भोगी कदा नग्न: पिशाचवत् । दत्तात्रेयो हरि: साक्षाद्भुक्तिमुक्तिप्रदायक: ।।2।। अर्थ कभी योगी वेश में, कभी भोगी वेश में और कभी नग्न दिगम्बर के वेश में पिशाच के समान इधर-उधर घूमते महामुनि दत्तात्रेय भोग एवं मोक्ष को देने में समर्थ साक्षात विष्णु ही हैं. वाराणसीपुरस्नायी कोल्हापुरजपादर: । माहुरीपुरभिक्षाशी सह्यशायी दिगम्बर: ।।3।। अर्थ ये महामुनि प्रतिदिन प्रात: काशी में गंगा नदी में स्नान करते हैं और फिर समुद्रतटवर्ती कोल्हापुर के महालक्ष्मी मन्दिर पहुँचकर देवी का जप-ध्यान करते हैं तथा माहुरीपुर (वर्तमान नाम माहुरगढ़ है. यहाँ दत्तात्रेय जी की मन्दिर आदि कई चिह्न हैं) पहुँचकर कुछ भिक्षा करते हैं और फिर सह्याचल की कन्दराओं में दिगम्बर-वेश में विश्राम एवं शयन करते हैं. इन्द्रनीलसमाकारश्चन्द्रकान्तसमद्युति: । वैदूर्यसदृशस्फूर्तिश्चलत्किंचिज्जटाधर: ।।4।। अर्थ देखने में इन्द्रनीलमणि के समान भस्म पोते हुए उनका शरीर पूरा नीला है और उनकी चमक चन्द्रकान्तमणि के समान श्वेतवर्ण की है. इनकी फहराती हुई काली-नीली जटा कुछ-कुछ वैदूर्यमणि के समान दिखती है. स्निग्धधावल्ययुक्ताक्षोsत्यन्तनीलकनीनिक: । भ्रूवक्ष:श्मश्रुनीलांक: शशांकसदृशानन: ।।5।। अर्थ इनकी आँखें स्नेह से भरी हुई श्वेत वर्ण की हैं. इनकी आँखों की पुतलियाँ बिलकुल नीली हैं. इनका मुखमण्डल चन्द्रमा के समान और इनकी भौंहें तथा छाती तक लटकी दाढ़ी नीली है. हासनिर्जितनीहार: कण्ठनिर्जितकम्बुक: । मांसलांसो दीर्घबाहु: पाणिनिर्जितपल्लव: ।।6।। अर्थ इनकी हास्यछटा नीहार की हिम-बिन्दुओं को तिरस्कृत करती है और कण्ठ की शोभा शंख को लज्जित करती हैं. सारा शरीर मांस से भरा कुछ उभरा-सा है तथा इनकी भुजाएँ लम्बी हैं और करकमल नवीन पत्तों से भी अधिक कोमल हैं. विशालपीनवक्षाश्च ताम्रपाणिर्दलोदर: । पृथुलश्रोणिललितो विशालजघनस्थ: ।।7।। अर्थ इनकी छाती चौड़ी और मांसल हैं तथा करतल पूरा लाल है. इनका कटिप्रदेश मांसल एवं ललित है तथा जघनस्थल विशाल है. रम्भास्तम्भोपमानोरूर्जानुपूर्वैकजंघक: । गूढ़गुल्फ: कूर्मपृष्ठो लसत्पादोपरिस्थल: ।।8।। अर्थ इनकी जाँघें केले के स्तम्भ के समान घुटने तक उतरती हुई हैं तथा उनकी घुट्टियाँ मांस से ढकी हुई हैं और पैर का ऊपरी भाग कछुए की पीठ के समान ऊपर उठा हुआ है. रक्तारविन्दसदृशरमणीयपदाधर: । चर्माम्बरधरो योगी स्मर्तृगामी क्षणे क्षणे ।।9।। अर्थ इनका पदतल रक्तकमल के समान अत्यन्त मृदुल और रमणीय है. वे ऊपर से अपने शरीर पर मृग चर्म धारण किए रहते हैं और जो भी भक्त इन्हें जब-जब जहाँ-जहाँ पुकारते हैं, वे अपने योगबल से तब-तब वहाँ पहुँचते हैं. ज्ञानोपदेशनिरतो विपद्धरणदीक्षित: । सिद्धासनसमासीन ऋजुकायो हसन्मुख: ।।10।। अर्थ वे ज्ञान के उपदेश में निरन्तर निरत रहते हैं और दूसरों को क्लेश से मुक्त करने के लिए सदा बद्धपरिकर रहते हैं. वे प्राय: सीधे शरीर से सिद्धासन लगाकर बैठे रहते हैं और उनके मुख पर मुसकान सदा विराजमान रहती है. वामहस्तेन वरदो दक्षिणेनाभयंकर: ।बालोन्मत्तपिशाचीभि: क्वचिद्युक्त: परीक्षित: ।।11।। अर्थ उनके बाएँ हाथ से वरद मुद्रा और दाहिने हाथ से अभय मुद्रा प्रदर्शित होती है. वे कभी-कभी बालकों, उन्मत्त व्यक्तियों और पिशाचिनियों से घिरे हुए दिखते हैं. त्यागी भोगी महायोगी नित्यानन्दो निरंजन: ।सर्वरूपी सर्वदाता सर्वग: सर्वकामद: ।।12।। अर्थ वे एक ही साथ त्यागी, भोगी, महायोगी और मायामुक्त नित्य आनन्दस्वरूप विशुद्ध ज्ञानी हैं. वे एक ही साथ सब रूप धारण कर सकते हैं, सब जगह जा सकते हैं और सभी को सभी अभिलषित पदार्थ प्रदान करने में भी समर्थ हैं. भस्मोद्धूलितसर्वांगो महापातकनाशन: । भुक्तिप्रदो मुक्तिदाता जीवन्मुक्तो न संशय: ।।13।। अर्थ महर्षि दत्तात्रेय अपने शरीर में भस्म लपेटे रहते हैं. इनके दर्शन या स्मरण से सब पापों का नाश हो जाता है. ये भोग एवं मोक्ष सब कुछ देने में समर्थ हैं और इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि ये पूर्ण जीवन्मुक्त हैं. एवं ध्यात्वाsनन्यचित्तो मद्वज्रकवचं पठेत् । मामेव पश्यन्सर्वत्र स मया सह संचरेत् ।।14।। अर्थ महर्षि दत्तात्रेय दलादन जी से कहते हैं – जो इस प्रकार अनन्य भाव से सब जगह मुझे देखते और मेरा ध्यान करते हुए मेरे इस वज्र कवच का पाठ करेगा, वह जीवन्मुक्त होकर सदा मेरे साथ विचरण करेगा. दिगम्बरं भस्मसुगन्धलेपनं चक्रं त्रिशूलं डमरुं गदायुधम् । पद्मासनं योगिमुनीन्द्रवन्दितं दत्तेति नामस्मरणेन नित्यम् ।।15।। अर्थ जो निर्वस्त्र, भस्म लपेटे, सुगन्धित द्रव्यों से उपलिप्त, चक्र, त्रिशूल, डमरू और गदा – इन आयुधों को क्रमश: अपने चार हाथों में धारण किये हैं, पद्मासन लगाकर बैठे हैं और योगी तथा श्रेष्ठ मुनिगण जिनकी वन्दना-प्रार्थना कर रहे हैं ऎसे दत्तमुनि नित्य नाम-जप में तल्लीन रहते हैं (ऎसे स्वरूप वाले दत्तात्रेय मुनि का मैं ध्यान कर रहा हूँ) अथ पंचोपचारै: सम्पूज्य, “ऊँ द्रां” इति अष्टोत्तरशतं जपेत् अर्थ – इसके बाद चन्दन, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य – इन पाँच उपचारों से पूजा करके दत्तात्रेय जी का मूलबीज – मंत्र “ऊँ द्रां” का 108 बार जप करें. तदनन्तर कवच का इस प्रकार पाठ करना चाहिए – ऊँ दत्तात्रेय: शिर: पातु सहस्त्राब्जेषु संस्थित: । भालं पात्वानसूयेयश्चन्द्रमण्डलमध्यग: ।।1।। अर्थ सहस्त्रदल कमल (शून्य चक्र) में स्थित दत्तात्रेय जी मेरे मस्तक की रक्षा करें. चन्द्रमण्डल में स्थित रहने वाले अनसूया के पुत्र भगवान दत्तात्रेय मेरे ललाट की रक्षा करें. कूर्चं मनोमय: पातु हं क्षं द्विदलपद्मभू: । ज्योतीरूपोsक्षिणी पातु पातु शब्दात्मक: श्रुती ।।2।। अर्थ द्विदल पद्म (आज्ञा चक्र) में स्थित मनस्वरूपी भगवान दत्तात्रेय कूर्च, मेरी नासिका के ऊपरी भाग की रक्षा करें. ज्योतिस्वरूप भगवान दत्तात्रेय मेरे नेत्रों की तथा शब्दात्मक दत्त मेरे दोनों कानों की रक्षा करें. नासिकां पातु गन्धात्मा मुखं पातु रसात्मक: । जिह्वां वेदात्मक: पातु दन्तोष्ठौ पातु धार्मिक: ।।3।।। अर्थ गन्धात्मक दत्त मेरी नासिका की तथा रसरूपी भगवान दत्त मेरे मुख की रक्षा करें. वेदज्ञानस्वरूपी दत्त मेरी जिह्वा की तथा धर्मात्मा दत्त मेरे ओष्ठ और दाँतों की रक्षा करें. कपोलावत्रिभू: पातु पात्वशेषं ममात्मवित् । स्वरात्मा षोडशाराब्जस्थित: स्वात्माsवताद्गलम् ।।4।। अर्थ अत्रिपुत्र दत्त मेरे कपोलों की तथा आत्मवेत्ता दत्तात्रेय जी मेरे समूचे शरीर की रक्षा करें. स्वरस्वरूप षोडशदल कमल (विशुद्धिचक्र) में स्थित निजात्मस्वरूप भगवान दत्तात्रेय जी मेरे गले की रक्षा करें. स्कन्धौ चन्द्रानुज: पातु भुजौ पातु कृतादिभू: । जत्रुणी शत्रुजित् पातु पातु वक्ष:स्थलं हरि: ।।5।। अर्थ चन्द्रमा मुनि के छोटे भाई दत्तात्रेय जी मेरे दोनों कन्धों की तथा सतयुग के आदि में उत्पन्न होने वाले भगवान दत्तात्रेय मेरी दोनों भुजाओं की रक्षा करें. शत्रुओं के विजेता भगवान दत्त मेरी पसलियों की तथा साक्षात विष्णुस्वरूप दत्तात्रेय जी मेरे वक्ष:स्थल की रक्षा करें. कादिठान्तद्वादशारपद्मगो मरुदात्मक: । योगीश्वरेश्वर: पातु हृदयं हृदयस्थित: ।।6।। अर्थ कसे ठतक द्वादशदल कमल (अनाहत चक्र) में स्थित योगीश्वरों के भी ईश्वर तथा हृदयस्थ वायुरूपी भगवान दत्तात्रेय मेरे हृदय की रक्षा करें. पार्श्वे हरि: पार्श्ववर्ती पातु पार्श्वस्थित: स्मृत: । हठयोगादियोगज्ञ: कुक्षी पातु कृपानिधि: ।।7।। अर्थ स्मर्तृगामी पास में रहने वाले साक्षात भगवान दत्तात्रेय मेरे पार्श्व भागों की तथा हठयोग आदि सभी योग-विद्याओं के ज्ञाता कृपासिन्धु दत्तात्रेय जी मेरी कुक्षि (पेट) की रक्षा करें डकारादिफकारान्तदशारससीरुहे । नाभिस्थले वर्तमानो नाभिं वह्न्यात्मकोsवतु ।।8।। वह्नितत्त्वमयो योगी रक्षतान्मणिपूरकम् । कटिं कटिस्थब्रह्माण्डवासुदेवात्मकोsवतु ।।9।। अर्थ डकार से लेकर फकार तक दसदल कमलयुक्त, अग्नितत्त्वमय नाभिस्थल मणिपूरचक्र में स्थित अग्निस्वरूप योगी भगवान दत्तात्रेय मणिपूरचक्र सहित मेरी नाभि की रक्षा करें. जिनके कटिप्रदेश में समस्त ब्रह्माण्ड स्थित हैं, वे वासुदेवस्वरूप भगवान दत्तात्रेय मेरे कटिप्रदेश की रक्षा करें. बकारादिलकारान्तषट्पत्राम्बुजबोधक: । जलतत्वमयो योगी स्वाधिष्ठानं ममावतु ।।10।। अर्थ बकार से लेकर लकार तक षडदल कमल में स्थित जलतत्वरूपी योगी भगवान दत्तात्रेय जी मेरे स्वाधिष्ठान चक्र की रक्षा करें. सिद्धासनसमासीन ऊरू सिद्धेश्वरोsवतु । वादिसान्तचतुष्पत्रसरोरुहनिबोधक: ।।11।। मूलाधारं महीरूपो रक्षताद्वीर्यनिग्रही । पृष्ठं च सर्वत: पातु जानुन्यस्तकराम्बुज: । अर्थ सिद्धासन लगाकर बैठे हुए सिद्धों के स्वामी भगवान दत्तात्रेय जी मेरी दोनों जाँघों की रक्षा करें. “व” कार से लेकर “स” कार तक चतुर्दल कमल में स्थित महीरूप अखण्ड नैष्ठिक ब्रह्मचारी भगवान दत्तात्रेय मेरे मूलाधाार चक्र की रक्षा करें. घुटने पर हस्तकमल को रखकर बैठे हुए भगवान दत्तात्रेय मेरी पीठ की सभी ओर से रक्षा करें. जंघे पात्ववधूतेन्द्र: पात्वंघ्री तीर्थपावन: । सर्वांग पातु सर्वात्मा रोमाण्यवतु केशव: ।।।13।। अर्थ अवधूतों के स्वामी भगवान दत्तात्रेय मेरे पैर की दोनों पिण्डलियों तथा अपने पैरों से सम्पूर्ण तीर्थों को पवित्र करने वाले भगवान दत्तात्रेय मेरे पदतलों की रक्षा करें. सर्वात्मा भगवान दतात्रेय मेरे सभी अंगों की तथा विचित्र केशों वाले भगवान दत्तात्रेय मेरे रोम समूहों की रक्षा करें. चर्म चर्माम्बर: पातु रक्तं भक्तिप्रियोsवतु । मांसं मांसकर: पातु मज्जां मज्जात्मकोsवतु ।।14।। अर्थ मृगचर्म धारण करने वाले भगवान दत्तात्रेय मेरी त्वचा की तथा भक्तिप्रिय भगवान दत्तात्रेय मेरे शरीर के रक्त की रक्षा करें. मांस बढ़ाने वाले दत्तात्रेय मेरी मांसस्थली की तथा मज्जात्मा भगवान दत्तात्रेय मेरी मज्जा धातु की रक्षा करें. अस्थीनि स्थिरधी: पायान्मेधां वेधा: प्रपालयेत् । शुक्रं सुखकर: पातु चित्तं पातु दृढाकृति: ।।15।। अर्थ स्थिर बुद्धिवाले भगवान दत्तात्रेय मेरी हड्डियों की तथा ब्रह्मस्वरुप दत्तात्रेय जी मेरी मेधा (धारणाशक्ति) की रक्षा करें. सुख देने वाले भगवान दत्तात्रेय मेरे शुक्र (तेज) की और दृढ़ वज्र शरीर वाले दत्तात्रेय जी मेरे चित्त की रक्षा करें. मनोबुद्धिमहंकारं हृषीकेशात्मकोsवतु । कर्मेन्द्रियाणि पात्वीश: पातु ज्ञानेन्द्रियाण्यज: ।।16।। अर्थ इन्द्रियों के स्वामीरूप भगवान दत्तात्रेय मेरे मन, बुद्धि और अहंकार की रक्षा करें. ईश्वरस्वरूप भगवान दत्तात्रेय मेरी कर्मेन्द्रियों की और अजन्मा भगवान दत्त मेरी ज्ञानेन्द्रियों की रक्षा करें. बन्धून् बन्धुत्तम: पायाच्छत्रुभ्य: पातु शत्रुजित् । गृहारामधनक्षेत्रपुत्रादीण्छंकरोsवतु ।।17।। अर्थ बन्धुओं में उत्तम भगवान दत्त मेरे बन्धु-बान्धवों की और शत्रु विजेता भगवान दत्तात्रेय मेरी शत्रुओं से रक्षा करें. शंकरस्वरूप भगवान दत्तात्रेय हमारे घर, खेत तथा बाग-बगीचे, धन-सम्पत्तियों और मेरे पुत्र आदि की रक्षा करें. भार्यां प्रकृतिवित् पातु पश्वादीन्पातु शार्ड्ग्भृत् । प्राणान्पातु प्रधानज्ञो भक्ष्यादीन्पातु भास्कर: ।।18।। अर्थ प्रकृति तत्व के मर्मज्ञ भगवान दत्तात्रेय मेरी पत्नी की और शार्ड्ग्धनुष धारण करने वाले विष्णुस्वरूप भगवान दत्तात्रेय मेरे पशु आदि की रक्षा करें. प्रधान तत्त्व के रहस्यवेत्ता भगवान दत्तात्रेय मेरे प्राणों की और सूर्यस्वरूपी भगवान दत्तात्रेय मेरे भक्ष्य-भोज्य आदि पदार्थों की कुदृष्टि एवं विष आदि से रक्षा करें. सुखं चन्द्रात्मक: पातु दु:खात् पातु पुरान्तक: । पशून्पशुपति: पातु भूतिं भूतेश्वरी मम ।।19।। अर्थ चन्द्ररूपी भगवान दत्त मेरे सुखों की रक्षा करें तथा त्रिपुर दैत्य को मारने वाले शिवस्वरूपी दत्तात्रेय जी मुझे सभी क्लेशों से बचायें. पशुपतिनाथरूपी दत्तात्रेय जी मेरे पशुओं की और भूतेश्वररूपी दत्त मेरे वैभवों – योगसिद्धियों की रक्षा करें. प्राच्यां विषहर: पातु पात्वाग्नेय्यां मखात्मक: याम्यां धर्मात्मक: पातु नैऋत्यां सर्ववैरिहृत ।।20।। अर्थ विष को दूर करने वाले दत्त जी पूर्व दिशा में और यज्ञस्वरूपी भगवान दत्तात्रेय अग्निकोण में रक्षा करें. धर्मराजरूपी दत्त दक्षिण दिशा में और सभी वैरियों को नष्ट करने वाले भगवान दत्तात्रेय नैऋत्यकोण में मेरी रक्षा करें. वराह: पातु वारुण्यां वायव्यां प्राणदोsवतु । कौबेर्यां धनद: पातु पात्वैशान्यां महागुरु: ।।21।। अर्थ भगवान वराहरूपी दत्त पश्चिम दिशा में और सबों को नासिका-मार्ग से वायुद्वारा प्राण-संचार करने वाले भगवान दत्त वायु कोण में रक्षा करें. उत्तर दिशा में धनाध्यक्ष कुबेररूपी और ईशान कोण में विश्व के महागुरु शिवस्वरुप भगवान दत्तात्रेय जी रक्षा करें. ऊर्ध्वं पातु महासिद्ध: पात्वधस्ताज्जटाधर: । रक्षाहीनं तु यत्स्थानं रक्षत्वादिमुनीश्वर: ।।22।। अर्थ महासिद्धरूपी दत्तात्रेय जी ऊपर की ओर और जटाधारी भगवान दत्तात्रेय जी मेरी नीचे की दिशा में रक्षा करें. जो रक्षा के लिए स्थान निर्दिष्ट नहीं किए गये हैं, शेष बच गए हैं, आदि मुनि दत्तात्रेय जी उसकी रक्षा करें. मालामंत्रजप: । हृदयादिन्यास: इसी प्रकार कवच के अन्त में भी पूर्ववत मालामन्त्र का जप, (करन्यास) हृदयादि अंगन्यास सम्पन्न कर लेना चाहिए. एतन्मे वज्रकवचं य: पठेच्छृणुयादपि । वज्रकायश्चिरंजीवी दत्तात्रेयोsहमब्रुवम् ।।23।। त्यागी भोगी महायोगी सुखदु:खविवर्जित: । सर्वत्रसिद्धसंकल्पो जीवन्मुक्तोsथ वर्तते ।।24।। अर्थ दत्तात्रेय जी कहते हैं कि जो मेरे इस वज्रकवच का पाठ एवं श्रवण करता है उसका सम्पूर्ण शरीर वज्र का हो जाता है और उसकी आयु भी अतिदीर्घ हो जाती है. यह मेरा स्वयं का कथन है. वह मेरे ही समान त्यागी, भोगी, महायोगी तथा सुख-दु:खों से परे हो जाता है, उसके सभी संकल्प सदा सर्वत्र सिद्ध होने लगते हैं और वह जीवन्मुक्त हो जाता है. इत्युक्त्वान्तर्दधे योगी दत्तात्रेयो दिगम्बर: ।दलादनोsपि तज्जप्त्वा जीवन्मुक्त: स वर्तते ।।26।। अर्थ ऎसा कहकर अवधूत दत्तात्रेय जी तो अन्तर्धान हो गए और दलादन मुनि भी इसका जपकर उनके ही समान जीवन्मुक्त के रूप में आज भी विद्यमान हैं. भिल्लो दूरश्रवा नाम तदानीं श्रुतवादिनम् । सकृच्छृवणमात्रेण वज्रांगोsभवदप्यसौ ।।27।। अर्थ उसी समय दूरश्रवा नाम के उस भिल्ल ने भी इस स्तोत्र को दूर से सुन लिया था और एक ही बार सुनने से उसका भी शरीर वज्र के समान सुदृढ़ हो गया. इत्येतद्वज्रकवचं दत्तात्रेयस्य योगिन: । श्रुत्वाशेषं शम्भुमुखात् पुनर्प्याह पार्वती ।।27।। अर्थ इस प्रकार महायोगी दत्तात्रेय जी के वज्रकवच को भगवान शंकर के मुख से सुनकर पार्वती जी ने उनसे पुन: प्रश्न किया. पार्वत्युवाच एतत्कवचमाहात्म्यं वद विस्तरतो मम । कुत्र केन कदा जाप्यं किं यज्जाप्यं कथं कथम् ।।28।। अर्थ पार्वती जी बोली – भगवन् ! आप कृपापूर्वक इस वज्रकवच का माहात्म्य मुझे विस्तारपूर्वक बताइए. इसके जप का कौन अधिकारी है और इसे कहाँ, किस प्रकार और कब-कैसे जपना चाहिए. उवाच शम्भुस्तत्सर्वं पार्वत्या विनयोदितम् । श्रीशिव उवाच श्रृणु पार्वति वक्ष्यामि समाहितमनाविलम् ।।29।। धर्मार्थकाममोक्षाणामिदमेव परायणम् । हस्त्यश्वरथपादातिसर्वैश्वर्यप्रदायकम् ।।30।। अर्थ पार्वती जी के द्वारा विनीत भाव से पूछे जाने पर भगवान शंकर ने सब कुछ बतला दिया. श्रीशिव बोले – पार्वती ! तुमने जो पूछा है उसे मैं बतला रहा हूँ. तुम ध्यान देकर सब सुनो. एकमात्र यह स्तोत्र धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सबका सम्पादन करने वाला है तथा हाथी, घोड़ा, रथ तथा पादचारी चतुरंगिणी सेना और सम्पूर्ण ऎश्वर्यों को प्रदान करने वाला है. पुत्रमित्रकलत्रादिसर्वसन्तोषसाधनम् । वेदशास्त्रादिविद्यानां निधानं परमं हि तत् ।।31।। संगीतशास्त्रसाहित्यसत्कवित्वविधायकम् ।बुद्धिविद्यास्मृतिप्रज्ञामतिप्रौढिप्रदायकम् ।।32।। अर्थ इसके पढ़्ने से पुत्र, मित्र, स्त्री आदि तथा सर्वोपरि तत्त्व भगवत्प्राप्तिरूप संतोष भी प्राप्त हो जाता है और यही वेदशास्त्र आदि सभी विद्याओं तथा ज्ञान-विज्ञान का आकार है. साथ ही साथ यह संगीताशास्त्र, अलंकार, काव्य और श्रेष्ठ कविता के निर्माण का ज्ञान भी प्राप्त करा देता है. बुद्धि, विद्या, धारणाशक्तिरूप स्मृति, नव नवोन्मेषशालिनी प्रतिभाशक्ति तथा विशुद्ध बोधात्मिका बुद्धि आदि को भी यह प्रदान कर देता है. सर्वसन्तोषकरणं सर्वदु:खनिवारणम् । शत्रुसंहारकं शीघ्रं यश:कीर्तिविवर्धनम् ।।33।। अर्थ यह सब प्रकार के क्लेशों को नष्ट करने वाला तथा सभी प्रकार से सुख-सन्तोषों को प्रदान करने वाला है. इसका पाठ तत्काल सभी काम, क्रोध आदि आन्तरिक और बाह्य-शत्रुओं का संहार कर यश और कीर्ति का विस्तार करता है. अष्टसंख्या महारोगा: सन्निपातास्त्रयोदश । षण्णवत्यक्षिरोगाश्च विंशतिर्मेहरोगका: ।।34।। अष्टादश तु कुष्ठानि गुल्मान्यष्टविधान्यपि । अशीतिर्वातरोगाश्च चत्वारिंशत्तु पैत्तिका: ।।35।। विंशति श्लेष्मरोगाश्च क्षयचातुर्थिकादय: । मन्त्रयन्त्रकुयोगाद्या: कल्पतन्त्रादिनिर्मिता: ।।36।। अर्थ यह आठ प्रकार के महारोगों, तेरह प्रकार के सन्निपातों, छियानवें प्रकार के नेत्र-रोगों और बीस प्रकार के प्रमेह, अठारह प्रकार के कुष्ठ, आठ प्रकार के शूल-रोग, अस्सी प्रकार के वात-रोग, चालीस प्रकार के पित्त रोग, बीस प्रकार के कफ संबंधी रोग, साथ ही क्षय रोग, चतुराहिक, तिजरा और बारी आदि से आने वाले ज्वर एवं मन्त्र-यन्त्र, कुयोग, टोटना आदि से उत्पन्न रोग, दु:ख, पीडा़ आदि भी नष्ट हो जाते हैं. ब्रह्मराक्षसवेतालकूष्माण्डादिग्रहोद्भवा: । संगजादेशकालस्थास्तापत्रयसमुत्थिता: ।।37।। अर्थ इसके अतिरिक्त भूत, प्रेत, ब्रह्मराक्षस, कूष्माण्ड आदि से होने वाले दैवी प्रकोप और दुष्ट ग्रहों के द्वारा गोचर से उत्पन्न अनेक प्रकार की पीड़ाएँ स्पर्श दोष से उत्पन्न होने वाली छूआछूत की बीमारियाँ और विभिन्न देश, काल से उत्पन्न होने वाली प्रतिश्याय (जुकाम आदि) शीत ज्वर (मलेरिया आदि) तथा तापत्रयों (आधिदैहिक, आधिदैविक तथा आधिभौतिक) का इससे शमन हो जाता है. नवग्रहसमुद्भूता महापातकसम्भवा: । सर्वे रोगा: प्रणश्यन्ति सहस्त्रावर्तनाद्ध्रुवम् ।।38।। अर्थ इस कवच के सहस्त्रावर्तन – हजार बार पाठ करने से नवग्रह से उत्पन्न, पूर्व जन्म के पातक-महापातकों से उत्पन्न सभी रोग, दु:ख सर्वथा एवं निश्चित रूप से नष्ट हो जाते हैं. अयुतावृत्तिमात्रेण वन्ध्या पुत्रवती भवेत् । अयुतद्वितयावृत्या ह्यपमृत्युजयो भवेत् ।।39।। अर्थ इसके दस हजार बार पाठ करने से वन्ध्या स्त्री को भी सुलक्षण पुत्र प्राप्त हो जाता है और इसके बीस हजार बार पाठ करने से अकाल मृत्यु भी दूर हो जाती है. अयुतत्रितयाच्चैव खेचरत्वं प्रजायते । सहस्त्रादयुतादर्वाक् सर्वकार्याणि साधयेत् ।।40।। लक्षावृत्या कार्यसिद्धिर्भवत्येव न संशय: ।।41।। अर्थ इसके तीस हजार पाठ करने से साधक आकाशगमन की शक्ति प्राप्त कर लेता है और हजार से लेकर दस हजार तक की संख्या में पाठ करते न करते सारी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं. इसके एक लाख आवृत्ति से नि:सन्देह साधक के सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं. विषवृक्षस्य मूलेषु तिष्ठन् वै दक्षिणामुख: । कुरुते मासमात्रेण वैरिणं विकलेन्द्रियम् ।।42।। अर्थ गूलर के वृक्ष के नीचे दक्षिण की ओर मुखकर बैठकर इसका एक मास तक जप करने से शत्रु की सभी इन्द्रियाँ सर्वथा विकल हो जाती हैं. औदुम्बरतरोर्मूले वृद्धिकामेन जाप्यते । श्रीवृक्षमूले श्रीकामी तिंतिणी शान्तिकर्मणि ।।43।। अर्थ गूलर के वृक्ष के नीचे धन-धान्य की वृद्धि करने के लिए जप करने का विधान है. लक्ष्मी प्राप्ति की कामना से बिल्व वृक्ष के नीचे एवं किसी भी उपद्रव की शान्ति के लिए इमली वृक्ष के नीचे जप करना चाहिए. ओजस्कामोsश्वत्थमूले स्त्रीकामै: सहकारके । ज्ञानार्थी तुलसीमूले गर्भगेहे सुतार्थिभि: ।।44।। अर्थ तेज, ओज और बल की कामना से पीपल के वृक्ष के नीचे, विवाह की इच्छा से नवीन आम्र के वृक्ष के नीचे तथा ज्ञान की इच्छा से तुलसी वृक्ष के नीचे एवं पुत्र की कामना वालों को भगवान के मन्दिर के गर्भगृह में बैठकर इसका पाठ करना चाहिए. धनार्थिभिस्तु सुक्षेत्रे पशुकामैस्तु गोष्ठके । देवालये सर्वकामैस्तत्काले सर्वदर्शितम् ।।45।। अर्थ धन की इच्छा वालों को किसी शुभ स्थान में बैठकर तथा पशु की इच्छा वालों को गौशाले में बैठकर पाठ करना चाहिए. देवालय में किसी भी कामना से बैठकर जप करने से उसकी तत्काल सिद्धि होती है. नाभिमात्रजले स्थित्वा भानुमालोक्य यो जपेत् । युद्धे वा शास्त्रवादे वा सहस्त्रेण जयो भवेत् ।।46।। अर्थ जो नदी, सरोवर आदि में नाभिपर्यंत जल में स्थित होकर भगवान सूर्य को देखते हुए इस कवच का एक हजार बार जप करता है वह युद्ध, शास्त्रार्थ और सभी प्रकार के विवादों में विजयी होता है. कण्ठमात्रे जले स्थित्वा यो रात्रौ कवचं पठेत् । ज्वरापस्मारकुष्ठादितापज्वरनिवारणम् ।।47।। अर्थ जो रात्रि में किसी जलाशय आदि में कण्ठमात्र जल में स्थित होकर इस कवच का पाठ करता है, उसके सामान्य ज्वर, मिर्गी, कुष्ठ और उष्ण ज्वर आदि ताप भी नष्ट हो जाते हैं. यत्र यत्स्यात्सिथरं यद्यत्प्रसक्तं तन्निवर्तते । तेन तत्र हि जप्तव्यं तत: सिद्धिर्भवेद्ध्रुवम् ।।48।। अर्थ जहाँ कहीं जो कुछ उपद्रव, महामारी, दुर्भिक्ष आदि बीमारियाँ स्थिर हो गयी हैं, वहाँ जाकर इस कवच के जपमात्र से निश्चित ही वे उपद्रव आदि निर्वृत्त हो जाते हैं और शान्ति हो जाती है. इत्युक्तवान शिवो गौर्यै रहस्यं परमं शुभम् । य: पठेद् वज्रकवचं दत्तात्रेयसमो भवेत् ।।49।। अर्थ व्यास जी ऋषियों से कहते हैं कि भगवान शंकर ने पार्वती जी से इस परम गुप्त और कल्याणकारी स्तोत्र को कहा था. जो व्यक्ति इस वज्रकवच का पाठ करता है वह भी परम सिद्ध दत्तात्रेय जी के समान ही समस्त गुणों से संपन्न हो जाता है. एवं शिवेन कथितं हिमवत्सुतायै प्रोक्तं दलादमुनयेsत्रिसुतेन पूर्वम् । य: कोsपि वज्रकवचं पठतीह लोके दत्तोपमश्चरति योगिवरश्चिरायु: ।।50।। अर्थ इस बात को पहले अत्रिपुत्र दत्तात्रेय जी ने दलादन मुनि से कहा था और उसे ही भगवान शंकर ने पर्वतराज हिमालय की पुत्री भगवती पार्वती जी को बतलाया. जो व्यक्ति इस वज्रकवच का पाठ करता है वह चिरायु एवं योगियों में श्रेष्ठ होकर दत्तात्रेय भगवान की तरह सर्वत्र विचरण करता है. इति श्रीरुद्रयामले हिमवत्खण्डे मन्त्रशास्त्रे उमामहेश्वरसंवादे श्रीदत्तात्रेयवज्रकवचस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।। इस प्रकार रुद्रयामल-तन्त्र के अन्तर्गत मन्त्रशास्त्ररूप हिमवत्खण्ड में शिव-पार्वती के संवाद रूप में श्रीदत्तात्रेय जी का वज्रकवच परिपूर्ण हुआ । Stay Connected What is your reaction? INTERESTING 0 KNOWLEDGEABLE 0 Awesome 0 Considerable 0 improvement 0 Astologer cum Vastu vid Harshraj SolankiJivansar.com is a website founded by Mr. Harshraj Solanki the main aim of the astrological website is to aware people about genuine astrological knowledge and avoid misconception regarding astrology and spirituality.By his genuine practical and Scientific knowledge of astrology,people gets benefit and appreciate his work very much as well as his website for analysing any Kundli very scientifically and gives powerful remedies. His predictions are very real deep observed and always try to give traditional scientific remedies which is based on Biz Mantra,Tantrik totka Pujas,Yoga Sadhana,Rudraksha and Gems therapy. Website Facebook